आस्था.. परंपरा और आदिम संस्कृति का अद्भुत संगम है बस्तर दशहरा, नवमीं के दिन पहुंचेंगी माई दंतेश्वरी, जानिए 600 साल पहले कैसे हुई थी इसकी शुरुआत

आस्था.. परंपरा और आदिम संस्कृति का अद्भुत संगम है बस्तर दशहरा, नवमीं के दिन पहुंचेंगी माई दंतेश्वरी, जानिए 600 साल पहले कैसे हुई थी इसकी शुरुआत

जगदलपुरः छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में इन दिनों ऐतिहासिक बस्तर दशहरा की रौनक चरम पर है। सड़कों पर देवी-देवताओं की जयकारों के बीच दौड़ता रथ, उसके साथ चलते श्रद्धालुओं के हुजूम, और हर दिशा में गूंजती मां दंतेश्वरी की स्तुति – यह सब मिलकर एक ऐसे पर्व की अनुभूति कराते हैं, जो न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का जीवंत प्रतीक भी है। यह पर्व विशिष्ट इसलिए भी है क्योंकि यह दुनिया का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा उत्सव है, जो पूरे 75 दिनों तक मनाया जाता है। लेकिन इससे भी अधिक अद्भुत बात यह है कि यह दशहरा पारंपरिक राम-रावण युद्ध या रावण दहन से बिल्कुल भिन्न है। यहां ना राम की पूजा होती है, ना रावण वध, बल्कि आदिशक्ति मां दंतेश्वरी और क्षेत्रीय देवी-देवताओं की सामूहिक आराधना की जाती है।

देश और दुनिया में बस्तर दशहरा बिल्कुल अलग पहचान रखता है। आदिम संस्कृति की झलक, परंपराओं की विभिन्नता और उनकी अलग-अलग झांकी दशहरे की खासियत है। कहने को दशहरे में रावण वध की परंपरा का निर्वहन किया जाता है, लेकिन बस्तर दशहरा इससे बिल्कुल अलग है। दशहरे में जहां शक्ति उपासना होती है। यह ऐसा महापर्व है, जब पूरे बस्तर के गांव-गांव से सैकड़ो की संख्या में देवी देवता इस पर्व में शामिल होने पहुंचते हैं। ऐसे समय जब बस्तर से नक्सली प्रभाव कम हो रहा है, तब यह भीड़ और ज्यादा बढ़ गई है।

जानें कब हुई बस्तर दशहरे की शुरुआत

बस्तर दशहरे की शुरुआत की कथा 15वीं सदी के आसपास की बताई जाती है। बस्तर के काकतीय वंश के एक राजा ने भगवान जगन्नाथ की आराधना के लिए पुरी की यात्रा की थी। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि प्रदान की। राजा जब बस्तर लौटे, तो अपने साथ रथ की परंपरा भी लाए। यहीं से इस अद्भुत दशहरा उत्सव की नींव रखी गई, जो आज सैकड़ों वर्षों के बाद भी जीवित परंपरा के रूप में हर साल पूरे वैभव के साथ मनाया जाता है। बस्तर दशहरे की खासियत ऐसी है कि इसमें एक-एककर विभिन्न परंपराएं जुड़ती गई और यह त्यौहार 75 दोनों का हो गया। इतने दिनों में अलग-अलग रस्में आज भी बिल्कुल वैसे ही निभाई और पूरी की जाती हैं, जैसी सैकड़ों साल पहले रही होगी। इस महापर्व में बस्तर से कोई भी समाज ऐसा नहीं है जो अछूता रह जाए। हर समाज को इस महापर्व में सहभागिता दी जाती है। माना जाता है कि बस्तर और वहां की परंपराओं को जानना-देखना हो तो बस्तर दशहरा से बड़ा कोई मौका नहीं है। यही वजह है कि सैकड़ो की संख्या में सैलानी इस दौरान बस्तर पहुंचते हैं और बस्तर दशहरे का आनंद लेते हैं

मुख्य रूप से निभाई जाती है 12 रस्में

बस्तर दशहरे में 75 दिनों में मुख्य रूप से 12 रस्में होती हैं, जो दशहरे में बेहद महत्वपूर्ण होती है। सबसे पहली रस्म है पाट जत्रा, जिसमें निश्चित गांव से जंगल से चुनकर लकड़ी लाई जाती है और हरियाली अमावस्या के दिन उसे दंतेश्वरी मंदिर के ठीक सामने विधि-विधान से पूजा कर स्थापित कर दिया जाता है। बाद में इस लकड़ी का इस्तेमाल रथ निर्माण से जुड़े विभिन्न काम में किया जाता है। दूसरे रस्म डेरी गड़ई के साथ बस्तर दशहरा के रथ निर्माण का काम शुरू होता है। करीब 21 फीट लंबे रथ को खींचने के लिए 400 से अधिक ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है। ग्रामीण खुद रथ खींचने पहुंचते हैं और लकड़ी के विशाल रथ को हाथों से खींच कर आज भी परिक्रमा पथ पर ले जाया जाता है।

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कांछन देवी देती है राजा को दशहरे की अनुमति

इसके बाद बारी आती है कांछन गादी की। इस रस्म में इसमें एक समाज विशेष की नाबालिक युवती देवी के रूप में राजा को दशहरा मनाने का आशीर्वाद देती है और नौ दिनों तक सिर्फ एक ही जगह पर बैठकर उपवास पूर्ण करती है, जिससे दशहरा निर्विघ्न संपन्न हो सके। काछन गादी के बाद ही दशहरे की अन्य महत्वपूर्ण रस्मों का कार्य शुरू किया जाता है। आज भी यह रस्म में शामिल होना अलग ही तरीके का एहसास करता है। नवरात्र की शुरुआत के साथ ही जोगी बिठाई रस्म की जाती है। एक व्यक्ति जोगी के रूप में सिरहासार भवन में एक ही स्थान पर बैठकर आदि शक्ति की उपासना करता है। इन्हें राजा का प्रतिनिधि भी माना जाता है। अब इसके बाद रथ परिक्रमा शुरू होती है। शुरुआत में चलने वाले रथ को फूल रथ कहा जाता है। ऐसा इसलिए की विशेष गांव के लोग अपने गांव में सैकड़ो सालों से भगवान की पूजा के लिए फूलों का बगीचा लगाया करते थे, उन्हीं फूलों से यह रथ विशेष तौर पर सजाया जाता है। स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर का छत्र रखकर रथ परिक्रमा करवाई जाती है। पहले राज परिवार के माटी पुजारी इस रथ पर सवार हुआ करते थे यह मौका दशहरे में घूमने आए लोगों को न केवल रथ बल्कि रियासत के माटी पुजारी को सीधे देखने का होता था। फूल रथ की परिक्रमा 6 दिन चलती है और इसके बाद बेल पूजा की रस्म की जाती है, जिसमें राज परिवार बेल पेड़ में देवी से दशहरे के लिए आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं। इसके बाद निशा जात्रा पूजा होती है। इस पूजा में देर रात में बुरी शक्तियों से निपटने के लिए और अपने राज्य की रक्षा के लिए इस रस्म के तहत अनुपमा चौक स्थित मातागुड़ी मंदिर में राज परिवार पूजा करने जाता है। इस दौरान आपको वर्षों पुरानी रस्मों के तौर-तरीकों और उपासना पद्धतियों का दर्शन करने को मिलेगा, जो अपने आप में अदभुत है।

माता दंतेश्वरी को बुलाने खुद जाते हैं बस्तर के राजा

इस बीच राज परिवार नवरात्र के पंचमी तिथि को दंतेवाड़ा स्थित आदिशक्ति पीठ मां दंतेश्वरी को दशहरे पर्व के आमंत्रण देने जाता है और विधि विधान से देवी दंतेश्वरी को मावली माता के साथ जगदलपुर आने के लिए आमंत्रित करता है। इसे मावली परघाव कहा जाता है। नवमी के दिन मां दंतेश्वरी का छत्र जगदलपुर पहुंचता है। राजपरिवार के साथ-साथ सैकड़ों लोग माता का स्वागत करते हैं। फिर इसके बाद भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्में पूरी होती हैं। बाहर रैनी बस्तर दशहरा की एक महत्वपूर्ण रस्म है, जो भीतर रैनी रस्म के बाद पूरी की जाती है। भीतर रैनी रस्म में 8 चक्के के विजय रथ को परिक्रमा कराने के बाद आधी रात को इसे माडिया जाति के लोग चुरा लेते हैं। रथ चोरी करने के बाद इसे शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं। जिसके बाद राज परिवार के सदस्य कुम्हड़ाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ नए चावल से बने खीर नवाखानी खाई के बाद रथ को वापस शाही अंदाज में राजमहल लाया जाता है। इसे बाहर रैनी की रस्म कहा जाता है। इसके बाद मुरिया दरबार की रस्म अदा की जाती है। 1910 के बाद दशहरे के साथ जुड़ी इस रस्म में स्थानीय लोगों की समस्याओं पर बातचीत की जाती है। इसमें राजपरिवार के सदस्यों के साथ-साथ प्रशासनिक लोग भी शामिल होते हैं।

पहली बार शामिल होंगे केंद्रीय गृहमंत्री

इस बार मुरिया दरबार में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह शामिल होंगे। बस्तर के इतिहास में यह पहला मौका है, जब देश का गृहमंत्री इस खास कार्यक्रम में शामिल होंगे। इस बार बस्तर दशहरा बस्तर के लिए ही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के लिए खास है। वह इसलिए कि आजादी के बाद पहली बार पूरे बस्तर में लोकतंत्र की गूंज गांव-गांव तक पहुंचने लगी है। नक्सलवाद की गहरी पकड़ से अब बस्तर आजाद होने लगा है। केंद्र और राज्य सरकार का ध्यान बस्तर के विकास पर है। स्थानीय आदिवासी समुदाय का विश्वास बस्तर की भविष्य की संभावनाओं को लेकर केंद्र और राज्य सरकार का विशेष फोकस है।

क्या है मुरिया दरबार

मुरिया दरबार परंपरागत समाज के मुखियाओं का सम्मेलन होता है, जिसमें मांझी, चालकी, दशहरा पर्व को मनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्र से नियुक्त प्रमुख प्रतिनिधि शामिल होते हैं। माना यह जाता है किदशहरे के कुशल संचालन और दशहरे पर्व के समापन पर आने वाले वर्ष की रणनीति इसी मुरिया दरबार से तय होती है। इसके जरिए प्रशासक और आम ग्रामीण क्षेत्रों में समन्वय तय किया जाता है और यह पहली बार होगा जब केंद्र का गृहमंत्री इस बैठक में सीधे समाज प्रमुखों से संवाद करेंगे। एक तरह से यह बस्तर में बदलाव का आगाज माना जा रहा है क्योंकि केंद्रीय गृहमंत्री ने बस्तर को नक्सलवाद से मुक्त करने और बस्तर को विकास की राह में आगे ले जाने के लिए चुनाव से पहले ही वायदा किया था। खास बात यह किसी देश सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि के जरिए सरकार के मंशा और नक्सली मुक्त होने के बाद बस्तर के विकास की संभावनाओं पर वे अपना पक्ष समाज के बीच सीधे रख सकेंगे। प्रबल संभावना है कि नक्सलवाद के खात्मे के साथ बस्तर के विकास का रोड मैप अब इसी मुरिया दरबार से निकलेंगे।

रथ पर सवार हो सकते हैं बस्तर के राजा?

ऐतिहासिक और विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा 600 सालों से चली आ रही एक वृहद आदिम परंपरा है। मानव निर्मित विशालकाय रथ में बस्तर की आराध्यदेवी दंतेश्वरी के क्षत्र को रथारूढ़ करके शहर में घुमाया जाता है। 1966 तक बस्तर के अंतिम महाराजा रहे प्रवीरचंद्र भंजदेव और महारानी बस्तर की आराध्यदेवी दंतेश्वरी की क्षत्र को लेकर रथारूढ़ होते थे। जिसके बाद उन्हें शहर में भ्रमण कराया जाता था। उनकी हत्या के बाद राजशाही से लोकतांत्रिक देश होने के कारण यह परंपरा रुक गई। हर दशहरा पर्व में केवल देवी की क्षत्र चढ़ाकर दशहरा मनाया जाने लगा। राजपरिवार सदस्य कमलचंद भंजदेव का विवाह होने के बाद ग्रामीण यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें देवी के क्षत्र के साथ सपत्नीक रथ में बिठाया जाए। हालांकि राज परिवार के प्रमुख सदस्य कमलचंद्र भंजदेव इसे लेकर शासन-प्रशासन स्तर पर बात करने की बात कह रहे हैं।


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